संगीत और मनोविज्ञान

वैदिक काल से नृत्य कला को आध्यात्मिक उत्थान और मनोरंजन का साधन माना गया है। जो भावना हम जीवन में सामान्य रूप से व्यक्त नहीं कर सकते वहां नाच कर गाकर दिखा सकते हैं, जैसे अत्यंत हर्ष ,रौद्र सशक्त रूप है।
इसके साथ शारीरिक क्षमताओं का भी विकास होता है ।
संगीत पशु पक्षियों तक में देखा जाता है, कि वह हर्ष उल्लास को प्रकट करने के लिए नृत्य का सहारा लेते हैं।
भाषा की उत्पत्ति से पूर्व मुद्रा प्रदर्शन मनुष्य आंखें गर्दन , उंगलियां हाथ पैर इत्यादि भावना को स्पष्ट करते थे।
पर आजकल के समय में हमें हर तथ्य का प्रमाण चाहिए, हर विषय के मनोविज्ञान को जानना है।
ज्ञान ही नहीं तर्क और कुतर्क भी चाहिए इस लेख के माध्यम से संगीत और मनोविज्ञान की एक चर्चा।
संगीत के जन्म को लेकर मनोवैज्ञानिक विद्वानों का अनुमान है कि इस सभ्यता को उच्च स्तर पर पहुंचने से बहुत पूर्व ही संगीत का जन्म हो चुका था, जब भावों को व्यक्त करने की आवश्यकता प्रतीत हुई तब ध्वनि का सहारा लिया गया।
मनोवैज्ञानिक फ्राइड के अनुसार संगीत की उत्पत्ति एक शिशु के मनोविज्ञान के आधार पर हुई, जिस प्रकार बालक का रोना, चिल्लाना, हंसना आदि स्वत: ही सीखी गई उसी प्रकार प्रकृति से उसने संगीत सीखा जैसे वायु का वेग ,वर्षा के स्वर बिजली का कंपन ,बादलों का गर्जना इत्यादि यह उसके स्वयं की अनुभूति थी।
नाट्य शास्त्र संगीत दर्पण के अनुसार पक्षियों से लिए गए स्वर
मोर से षडज
चातक से ऋषभ
बकरा से गंधार
कौवा से मध्यम
कोयल से पंचम
मेंढक से धेवत
हाथी से निषाद
क्या हम स्वयं को बिन संगीत के महसूस कर सकते हैं ? लय ताल और नाट्य ही जीवन है , जिसमें हम सुबह से शाम तक नृत्य और अभिनय करते हैं।
जीवन नवरस और 33 व्यभिचारी
रसों में समहित है।
चिंता ,वासना ,गर्व ,मद , सुप्त निंद्रा, मती, आलस्य, आवेग वितर्क, इत्यादि व्यभिचारी भाव है।
जिनको हम उच्च जीवन जीने के लिए ” शिष्टाचार” कहते हैं नाट्य शास्त्र में मनुष्य की प्रवृत्ति अनुसार उन्हें मानुष लक्षण कहा गया है।
जैसे कि मंत्री लक्षण, सभापति लक्षण , दर्शक लक्षण,
स्त्री पुरुष के बनाव श्रृंगार की सज्जा के आधार पर उनके मनोविज्ञान को जानना नाट्य शास्त्र में वर्णित है ।
संगीत की समझ एक अच्छे जीवन व्यक्तित्व का विकास करने में सहायक होती है नाट्यशास्त्र सिर्फ संगीत नाट्य और नृत्य का ही शास्त्र नहीं है अपितु भरत मुनि द्वारा जीवन जीने की कला एवं जीवन के आनंद को बढ़ाने की कला निहित की गई थी।
जिसे हम आर्ट ऑफ लिविंग कहते है भरत मुनि ने वह सर्वज्ञान नाट्यशास्त्र में हजारों साल पहले लिखा , नाट्यशास्त्र से आयुर्विज्ञान , खानपान इत्यादि का भी विवरण है क्योंकि नाट्यशास्त्र हमारे चार वेदों से लिया गया ज्ञान समाहित है,
इस वेद का निर्माण ऋग्वेद से पाठ्य वस्तु, सामवेद से गान, यजुर्वेद में से अभिनय और अथर्ववेद में से रस लेकर किया गया था।
इसलिए तथ्य यह की जो भी जीवन में है वह नाट्यशास्त्र
से ही है ।