विश्वास का प्रतिरूप है भारतिय संस्कृति और सभ्यता

डॉ. दिलीप कुमार
(एसोसिएट प्रोफेसर एवं पाठ्यक्रम समन्वयक, अंग्रेजी पत्रकारिता, उत्तर क्षेत्रीय परिसर, जम्मू, भारतीय जनसंचार संस्थान)

संस्कृति और सभ्यता दोनों शब्द प्रायः पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर दिये जाते हैं। फिर भी दोनों में मौलिक भिन्नता है; और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। संस्कृति का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज में निहित संस्कारों से है; और उसका निवास उसके मानस में होता है। दूसरी ओर, सभ्यता का क्षेत्र व्यक्ति और समाज के बाह्य स्वरूप से है।एक बार कि बात है शोशल मीडिया पर अभिजीत सिंह जी को नीदरलैंडस की एक लड़की मिली थी। उनकी चर्चा ग्रहणीय लगी, उन्होने आगे बताया कि – मातृपक्ष से सिख और पितृपक्ष से डच थी वो । उससे अक्सर संवाद हुआ करता था जिसमें एक बार उसने सैमुएल हंटिंगटन की पुस्तक “सभ्यताओं का संघर्ष” या “क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स” को लेकर कहा कि इस पुस्तक के बारे में अपनी राय बताओ। उसकी इस बात पर अभिजीत सिंह ने कहा कि मैंने ये पुस्तक पढ़ी ही नहीं क्योंकि मेरे हिसाब से इस पुस्तक का शीर्षक उचित नहीं है, इसलिए मेरी रूचि ही इसे पढ़ने में नहीं हुई। उसने कहा- क्यों इस पुस्तक के शीर्षक में क्या दिक्कत है?मैंने उससे कहा- दिक्कत ये है कि संघर्ष कभी भी सभ्यताओं के मध्य नहीं हो सकता क्योंकि संघर्ष सभ्यता और असभ्यता, मानवता और दानवता, धर्म और अधर्म, सत्य और असत्य के बीच होता है। इसके उदाहरण कई हो सकते हैं पर मैं केवल एक उदाहरण दूंगा जो 11 सितंबर का है; क्योंकि इस दिन ने सभ्यता और असभ्यता दोनों के चेहरे को देखा है।
ये वो घटना थी जिसके बाद दुनिया भर के एयरपोर्ट्स सुरक्षा जांच को लेकर बड़े सजग हो गए। रोचक ये है कि इस सजगता के बीच भी हिंदुओं को अपने यहाँ आने देने या अपने देश की नागरिकता देने में दुनिया का कोई भी देश अधिक नहीं सोचता और तो और हिंदुओं को लेकर यूरोप अमेरिका या अन्य महाद्वीपों के देशों की सरकारें नागरिकता मामलों में लिबरल हो जाती है जबकि बाकियों के साथ वो ऐसा नहीं करते।
उस लड़की ने पूछा :- ऐसा क्यों
अभिजीत सिंह ने कहा- ये आज के हमारे व्यवहार के कारण तो है ही है साथ ही दुनिया की नज़रों में ये विश्वास लंबे समय से है कि अगर कोई हिन्दू है तो वो कभी गलत नहीं करेगा, अराजकता नहीं फैलाएगा, हिंसा नहीं करेगा और मेरे देश के नियम-क़ानूनों और मान्यताओं का सम्मान करेगा। सभ्यों की तरह व्यवहार करेगा।
इसके बाद अभिजीत सिंह ने उससे कहा- दुनिया में जब भारत के अलावा कहीं सभ्यता और ज्ञान नहीं था तो ऋषियों ने हमारे पूर्वजों को आदेश देते हुये कहा था- ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ यानि जाओ और जाकर दुनिया को भद्र बनाओ, श्रेष्ठ बनाओ, उन्हें सुसंकृत करो और जाकर उनका हृदय जीतो।
तुम उस ज़माने की कल्पना करो जब हवाई जहाज, पानी के यांत्रिक जहाज, ट्रेन, बस और कार तो दूर यातायात के सामान्य सुलभ साधन नहीं थे, सड़कें नहीं थी, गूगल मैप तो दूर कोई नक्शा भी नहीं था, तब भी हमारे पूर्वज उस आदेश का अनुपालन करने निकल गये। वो जहाँ जा रहे थे वहां और भी कई तरह की कठिनाइयाँ थीं। कहीं की भाषा भिन्न थी, कहीं का समाज बर्बर और हिंसक था, कहीं के समाज में आसुरी शक्तियों का प्राबल्य था और कहीं-कहीं का समाज तो बाहरी लोगों को देखना तक पसंद नहीं करता था। प्रश्न है कि किसने प्रेरित किया उन्हें अगम्य और दुर्गम यात्राएं करने के लिए सिवाय मानव जाति के प्रति करुणा और उन्हें श्रेष्ठ और सुसंस्कृत बनाने के भाव के? और जब लोग मानव जाति के लिए अपनी करुणा लिए निकले तो अपने साथ क्या लेकर गये? क्या वो अपने साथ हथियार लेकर गये? नहीं ! बल्कि वो साथ लेकर गये स्थापत्य, सभ्यता, दर्शन, नीतिशास्त्र, तुलसी रामायण, चिकित्सा शास्त्र, ज्ञान-विज्ञान, खगोल विज्ञान, ज्योतिष, नाट्य शास्त्र और मानव-जाति के त्राण के लिए असीमित करुणा। भारत के दक्षिण-पूर्व में एक देश है कम्बोडिया, वहां की एक राजकन्या थी सोमा। उसको खबर मिली कि भारत देश की तरफ से जलपोतों पर सवार एक दल उसकी भूमि उतरा है तो अपनी भूमि की रक्षा करने के लिए वो अपने सेना के साथ निकल पड़ी। जब उस दल के अगुआ युवक के सामने पहुँची तो उस समय वो और उसकी पूरी सेना नग्न अवस्था में थे। उन सबको पता ही नहीं था कि वस्त्र क्या होते हैं। भारत से आने वाले जलपोत के नायक ‘शैलराज कौन्डिल्य’ के लिए ये दृश्य बड़ा विस्मयकारी था कि एक स्त्री बिलकुल नग्न भी किसी के सामने आ सकती है। प्रखर मेघा के स्वामी कौन्डिल्य समझ गए कि मामला क्या है और उन्होंने एक कपड़े को तीर में लपेटा और सोमा की तरफ छोड़ दिया। सोमा समझ नहीं पाई कि इसका क्या करना है तो कौन्डिल्य ने इशारे से उसे समझाया कि इस वस्त्र को अपने शरीर पर लपेट लो और उनके समझाने के बाद सोमा ने वही किया। उसने बाद सोमा को समझ में आया कि जिनको वो आक्रांता समझ रहे हैं वो तो दरअसल सभ्यता सिखाने वाले लोग हैं। एक ‘हिन्दू’ जब कौन्डिल्य बनकर कंबोडिया पहुँचा तो तो उसने नग्न रहने वाले कम्बुज लोगों की हँसी नहीं उड़ाई बल्कि उसने उनको वस्त्र पहनना सिखाया। सु-संस्कृत करने का ये प्रयास और भी आगे जाए इसके लिए कौन्डिल्य ने उस कन्या सोमा से विवाह कर लिया और उसके बाद कंबोडिया उत्कृष्ट सभ्यता की गवाह बन गई। वहां संस्कृत भाषा पहुँची, उन्होंने रोज स्नान करना, साफ तथा स्वच्छ रहना सीखा, वहां धान की खेती पहुँची, नहरों का जाल बिछाया गया, कौन्डिल्य ने बर्बर और जंगली लोगों को कुशल व्यापारी बना दिया। जंगलों और गुफाओं में रहने वाले कम्बोज लोगों को हमारे पूर्वजों ने स्थापत्य सिखाई और इसमें वो लोग इतने आगे पहुँचे कि 12वीं सदी में वहां बने अंकोरवाट के मंदिर आज भी आधुनिक दुनिया के लिए कौतूहल का विषय है।प्रश्न है हम हिन्दू ये सब क्यों करते हैं ? इसलिए क्योंकि हमारे पूर्वजों ने हमें निर्देशित किया था कि दुनिया में जहाँ-जहाँ मानव समाज कुरीतियों से ग्रस्त होकर अज्ञान और अशिक्षा के दलदल में दिखे, वहां-वहां जाओ और उन सबका उद्धार करो, उनको “आर्य” बनाओ। उनको भद्र बनाओ पर कभी भी कुछ ऐसा मत करना कि उन्हें उस दिन को कोसना पड़े जब तुम उनके वहां पहुँचे थे। अटल जी के इसी को लिखा है- भूभाग नहीं, शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।हृदय जीतने के इसी निश्चय को पूरा करने महर्षि कण्व मिश्र देश गये थे और वहां जाकर वहां के लोगों को देवभाषा संस्कृत पढ़ाकर सुसंस्कृत किया था। इसी निश्चय को लेकर उद्दालक मुनि पाताल देश अमेरिका और कश्यप तथा मातंग मुनि चीन गये थे, इसी निश्चय को लेकर अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था और न जाने कितने ही बौद्ध भिक्षुओं ने श्रमसाध्य यात्रायें करते हुए पूरी धरती को अपने क़दमों से नाप दिया था ताकि इस निश्चय की पूर्ति हो सके। इसी निश्चय को पूरा करते हुए गुरु नानक देव जी की उदासियाँ हुई थी जिसमें उन्होंने मक्का, मदीना, बग़दाद, सीलोन, बुखारा, बल्ख तक की यात्राएँ करते हुए वहां के लोगों को धर्म का सच्चा स्वरूप सिखाया था। इसी निश्चय को लेकर स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद मज़हब के नाम पर हो रहे झगड़े और पांथिक मतभेदों के कोढ़ से शापित दुनिया को सहिष्णुता और समादर का ज्ञान देने निकले थे; जबकि उनकी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। इसी निश्चय को लिए भक्ति-वेदांत प्रभुपाद निकले जिन्होंने ईश्वर से विमुख हो रहे पश्चिमी जगत को ईश्वर से प्रेम करना सिखाया और इसी निश्चय के साथ परमहंस योगानंद और बाबा रामदेव पूरी दुनिया में अध्यात्म और योग का ज्ञान लेकर गये।और जानती हो, न तो महर्षि कण्व के समय और न आज ही हम कहीं गये तो हमने कभी वहां की मूल संस्कृति का उच्छेद नहीं किया। अमेरिकी महाद्वीप का मय, इंका और अजोक संस्कृतियों में सबसे पहले हमारे कदम पड़े थे पर उनकी संस्कृति को नष्ट करने का कोई प्रयास हमने नहीं किया बल्कि हमने उनसे केवल ये कहा कि तुम बस सभ्यता के सूत्र हमसे लो और अपनी संस्कृति के आधार पर अपना उन्नयन करो। और इसलिए दुनिया में कहीं भी एक उदाहरण नहीं मिलता जब हमारे ऊपर अथवा हमारे पूर्वजों के ऊपर किसी ने ये आरोप लगाया कि हिन्दू हमारे यहाँ का शांतिप्रिय समुदाय नहीं है अथवा ये हिन्दू हमारे यहाँ के किसी कानून का पालन नहीं करता। इसलिए हिंदुओं को अपने यहाँ आने देने या अपने देश की नागरिकता देने में दुनिया का कोई भी देश क्यों अधिक नहीं सोचता, इसकी वजह क्या है तो इसकी वजह हमारा यही गुण है जो केवल देना जानती है छीनना नहीं। कोई सभ्य और संस्कारित नहीं है तो उसे हम सभ्यता और संस्कार सिखाते हैं न कि उसका उपहास करती है। हम किसी के लिए कभी संकट या असहजता का कारण नहीं बनते। दुनिया आज हमें जो फूल दे रही है उसके मूल में काँटों भरा पथ है जिस पर चलकर हमारे अनगिनत पूर्वजों और ऋषियों ने यात्रायें की और उसके जरिये हमेशा दुनिया को शांति का मार्ग दिखाया, उनकी विविधताओं का रक्षण और सम्मान किया, उन्हें ज्ञान दिया, उन्हें सभ्य और सुसंकृत किया और बदले में कोई कीमत वसूल नहीं की।ये वही बातें हैं जिसे 11 सितंबर के दिन स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की धर्म-सभा और उसके बाद अलग-अलग तरह से कही थी और दुनिया को स्तंभित कर दिया था कि क्या कोई ऐसी संस्कृति भी हो सकती है जहां इस धरती को, समूची मानव जाति को लेकर ऐसे उद्दात विचार हो?विवेकानंद ने उस धर्मसभा में तलवार नहीं निकाली थी, बम नहीं फोड़े थे पर जो “शाब्दिक विस्फोट” किया था उसकी गूंज पूरी दुनिया में गुंजायमान हो गई थी।