न्यायिक प्रक्रिया  में हिंदी व स्थानीय भाषाओं का महत्व*

Shashidhar Shukla

  *डॉ कामिनी वर्मा*
ज्ञानपुर, भदोही ( उत्तर प्रदेश )
लगभग 135 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत विविधता युक्त और कई खांचों में बंटा हुआ बहुरंगी समाज है । *कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वानी* यहाँ के सर्वथा उपयुक्त है यहाँ लगभग 180 भाषाएं व सैकड़ों जातियाँ है । द्रविड़ , कोल , आर्य, ईरानी, यूनानी, हूण ,अरब , मुस्लिम , मंगोल,  डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज आदि। लगभग सभी जातियों की अपनी अपनी भाषाएँ थी।  जब ये जातियाँ भारत मे आकर बसी तो वैचारिक आदान प्रदान हेतु ऐसी भाषा का आविर्भाव हुआ जो देश के अधिकांश भागों की भाषा होने के साथ साथ सरकारी कामकाज की भाषा बन गयी ।अंग्रेजो के साथ आई अंग्रेजी भाषा भी स्वाधीनता के 71 साल बीत जाने के बाद व काफी विरोध के बावजूद भी भारतीय न्यायालयों कार्य की भाषा बनी हुई है।
 न्यायालय , अदालत , कचहरी या कोर्ट सामान्यतः उस स्थान को कहते है जहाँ पीड़ित,  न्याय प्राप्ति की आशा से जाते है । यहां याची मुकदमा दायर करता है , वकीलों के माध्यम से पक्ष विपक्ष में वाद विवाद ( बहस ) होती है । उसके पश्चात माननीय न्यायाधीश द्वारा फैसला सुनाया जाता है , जो कि अक्सर अंग्रेजी भाषा में होता है। न्यायिक कार्य में भाषा की महती  भूमिका होती है। स्वाधीनता पूर्व भारत मे भाषागत विवाद की समस्या नही थी। मुगलकाल में जहांगीर के शासनकाल में अंग्रेज भारत  मे व्यापार करने के उद्देश्य से  आये और यहाँ की दुर्बल राजनीति में पैठ बनाकर शासक बन बैठे । उनकी भाषा अंग्रेजी थी अतः व्यापारिक , राजनीतिक  व व्यवहारिक कार्यो के लिए अंग्रेज एक ऐसा शिक्षित वर्ग चाहते थे जो रक्त व वर्ण से भारतीय हो लेकिन उसकी सोच , रुचि , नैतिकता और बुद्धि में अंग्रेजियत हो। जो शासक और शासित के बीच मध्यस्थता का कार्य कर सके ।अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैकाले ने राजा राममोहन राय और उत्साही भारतीयों के सहयोग से भारत का पश्चिमीकरण करना शुरू कर दिया और समाज की प्रत्येक संस्था स्कूल , कॉलेज, अस्पताल, न्यायालय इत्यादि में अंग्रेजी भाषा का प्रचार करना शुरू कर दिया । थोड़ी सी भी अंग्रेजी जानने वाले को नौकरी व अन्य सुविधाएं देना शुरू कर दिया । कालक्रम में भारत मे एक अंग्रेजी और  अंग्रेज परस्त वर्ग तैयार हो गया। और न्यायालयों में अंग्रेज ही न्यायाधीश होते थे । अतः न्यायालयों में अंग्रेजी स्थापित होकर निर्णय की भाषा बनी।
ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति पाने के लिए  स्वाधीनता संग्राम अंग्रेज व अंग्रेजी परस्त दोनो से मुक्ति पाने के लिए था ।  जून 1946 में गाँधी जी ने कहा भी था भारत के स्वतंत्र होने के छह मास बाद सम्पूर्ण देश की भाषा हिंदी हो जाएगी परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सत्ताधारियों का विचार बदल गया , अब उनका मानना था कि वैश्विक स्तर पर अंग्रेजी का वर्चस्व है अतः भारत का विकास अंग्रेजी के बिना नही हो सकता इसलिए शासन व्यवस्था व न्यायालय में काम काज अंग्रेजी में ही जारी रहा ।
26 जनवरी 1950 को लागू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के पहले पैराग्राफ में आने वाले 15 वर्षों अर्थात 1965 तक केंद्र सरकार की कामकाज की भाषा  अंग्रेजी रहने का उल्लेख है। उसके पश्चात एक समिति बनाकर  उसके विचारों पर राष्ट्रपति की अनुशंसा के बाद विधेयक बनाकर अंग्रेजी को हटाया जा सकेगा । इसी अनुच्छेद के तीसरे पैराग्राफ में वर्णित है यदि भारत के किसी भी राज्य ने हिंदी भाषा का विरोध किया तो इसे नही हटाया जा सकेगा । देश के अधिकतर राज्यों में आम बोलचाल की भाषा हिंदी होने के बावजूद भी उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी प्रमाणिक भाषा रहेगी । 1965 में  राजभाषा हिंदी बनाने के प्रश्न पर दक्षिण भारत में दंगो को लेकर 1968 में एक संशोधन किया गया यदि एक राज्य भी अंग्रेजी भाषा का समर्थन करेगा तो अंग्रेजी भाषा ही जारी रहेगी । उल्लेखनीय है कि नागालैंड में राजकीय भाषा अंग्रेजी घोषित की जा चुकी है। अतः माननीय न्यायालयों की भाषा अनिर्णीत है । यहाँ पर
21 जनवरी 2013 को  दैनिक अंग्रेजी समाचार पत्र *टाइम्स ऑफ इंडिया* में प्रकाशित समाचार विचारणीय है जब सत्र न्यायालय में हत्या के आरोपी चंद्रकांत झा ने फैसले की प्रति की हिंदी में मांग की तो अदालत में एक समस्या उत्पन्न हो गयी क्योंकि अदालत में कोई अनुवादक उपस्थित नही था जो कि माननीय न्यायाधीश द्वारा अंग्रेजी में  दिए गए फैसले का हिंदी में अनुवाद कर सके । 2 बार फैसले को टाला गया। माननीय सत्र न्यायाधीश द्वारा , जिला न्यायाधीश को अनुवादक न होने के बारे में लिखकर सूचित किया गया। जिला न्यायाधीश द्वारा अनेक बार दिल्ली सरकार से अनुवादक की मांग की गई , उसके बावजूद सरकार द्वारा कोई ठोस कदम नही उठाया गया। बाद में अनुवादक की व्यवस्था की गई और हिंदी में फैसला लिखा गया। इस संबंध में अधिवक्ता शिवसागर तिवारी ने एक जनहित याचिका दायर की , कि अदालत में फैसले व बहस हिंदी अथवा वहाँ की स्थानीय भाषा की जाए।
 इसका समाधान भविष्य की नीतियों पर निर्भर करता है
व्यवहारिक दृष्टि से देखे तो मौलिकता मातृभाषा से ही आती है क्योंकि उससे हमारी संवेदनाएं सन्निद्ध होती है तथा भावनाओं को अपनी भाषा मे ही समझा व अभिव्यक्त किया जा सकता है । अंग्रेजी जानने वालों की संख्या बहुत ही कम है इसे सीखने में भी कई गुना अधिक परिश्रम करना पड़ता है ।सम्पूर्ण विश्व मे  और भारत मे जनगणना के आकंड़ों के अनुसार बहुत  कम लोग ही  अंग्रेजी जानते व समझते है । ऐसी स्थिति में यदि न्यायालय की कार्यवाही  अंग्रेजी भाषा मे होगी तो जहां अधिकांश जनसंख्या अंग्रेजी से अनभिज्ञ है तो वो इसे शंका की दृष्टि से देखेगी एवम न्यायालय द्वारा किये गये फैसलों में विश्वशनियता का अभाव होगा और  अनुच्छेद 19 के अंतर्गत “जनता के जानने के अधिकार” का भी हनन होगा ।
गौरतलब है कि राजभाषा विभाग ने अपने पत्रांक 1/14013/05/2011- 0 .L ( Policy / C.T.B ) दिनांक 11 – 9 -12 व तत्पश्चात पत्रांक 12019/ 17 – 2010 रा. भा. ( शि ) दिनाँक 3 – 4 -2013 से उच्चतम न्यायालय से राज भाषा नीति अनुपालन की अपेक्षा की है। उच्चतम न्यायालय ने भी अपने पत्रांक 109A / m i s c -s c a ( j ) दिनाँक 25 – 9 -12 द्वारा इस प्रस्ताव पर विचार करने हेतु सहमति प्रदान की है । क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 272 तथा सिविल कोड की धारा 137 में राज्य सरकार को जिला एवं सत्र न्यायालय की भाषा निश्चित करने का अधिकार प्राप्त है। धारा 272 व 137 के अंतर्गत हरियाणा सरकार ने आधिकारिक भाषा एक्ट 1969 के अंतर्गत हिंदी देवनागरी लिपि को हरियाणा की राजभाषा माना है
अनुच्छेद 348 के द्वारा उच्च न्यायालयों के लिए 1970 से हिंदी भाषा के प्रयोग का प्रावधान किया गया है । राजभाषा अधिनियम की धारा 7क से अन्तः सम्बन्ध स्थापित करके उच्चतम न्यायालय भी हिंदी भाषा के वैकल्पिक प्रयोग का प्रावधान कर सकता है। इसके लिए किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता भी नही है।जिससे देश की जनता को मातृभाषा मे न्याय भी मिल सकेगा । देश के कुल 18008 अधीनस्थ न्यायालयों में से 1765 की भाषा जिसमे अधिवक्ता और न्यायाधीश हिंदी भाषा मे कार्य कर रहे है ।देश में हिंदी जानने , समझने, पढ़ने लिखने, वाले न्यायविदों की भी कमी नही है। जब माननीय संसद द्वारा समस्त कानून हिंदी भाषा में बनाये जा रहे है और पुराने कानूनों का भी हिंदी में अनुवाद किया जा रहा है ऐसे में उच्चतम न्यायालय एवम अन्य अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने वाले न्यायालयो को हिंदी भाषा का प्रयोग करने में कोई कठिनाई नही है । आज जब चीन , जापान जैसे विकसित देश अपनी मातृभाषा का प्रयोग करके समृद्घ व खुशहाल हैं ।और जब हमारी संस्कृति मातृभाषा मे सन्निहित है तब सुनवाई और अभिव्यक्ति दोनो मातृभाषा और राष्ट्रभाषा में  सम्भव है । आज के दौर में जो कार्य भारतीय भाषा अभियान द्वारा किया जा रहा है एक बहुत ही सराहनीय कदम है , इसी तरह यह अभियान आरडब्लूऐस के सहयोग से चलता रहा तो वह दिन भी दूर नही जब न्यायालयों में सभी कार्य हिंदी में होने लगेंगे ।
अंत मे मैं स्वर्गीय भारतेंदु हरिश्चंद की पंक्तिओं से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगी
*निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति के मूल*
*बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न  हिय शूल*