अब रामद्रोही भी लौटने लगे हैं श्रीराम मंदिर की ओर !!

अयोध्या में भगवान श्री राम की जन्म भूमि पर भव्य मंदिर बने, इस बात को अब सभी कहने लगे हैं. चाहे कोई राजनेता हो या समाज शास्त्री, हिन्दू हो या मुसलमान. वह अलग बात है कि कुछ लोग यह डंके की चोट पर कहते हैं तो कुछ दबी जुबान में, कुछ को सिर्फ दिखावे के लिए बोलना पड़ता है, तो कुछ दिल से. किसी को इसमें उनका राजनैतिक हित सधता नजर आता है तो कोई सिर्फ यह देखने हेतु कह बैठता है कि देखें इसके लोग क्या अर्थ लगाते हैं. कोई सीधे राम मंदिर की बात न कर, मंदिर आन्दोलन से जुड़े पूज्य संतों की शरण में जाने का, तो कोई किसी अन्य मंदिर की बात कर हिन्दू समाज का हितैषी दिखने का नाटक करने लगा है.

अभी हाल ही में एक ऐसे राजनैतिक दल ने, कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध अंकोरवाट मन्दिर की तर्ज पर, उत्तर प्रदेश में एक भव्य विष्णु मंदिर बनाने का चुनावी शगूफा छेड़ दिया है, जिसे अयोध्या में असंख्य निहत्थे राम-भक्तों पर गोली चलवाकर दर्जनों की हत्या में भी गर्व का अनुभव होता है. इतना ही नहीं, चाहे सिर्फ टीवी चेनलों की बहसों में ही सही, अब तो वे लोग भी राम मंदिर का समर्थन करते हुए देखे जा रहे हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय में भगवान श्री रामलला के विरोध में खड़े हैं.

विचारणीय विषय यह है कि जो अब तक सैक्यूलरवाद का लबादा ओढे अयोध्या में श्रीराम जी के मंदिर के विरोध में बंदूक ताने खड़े होते थे, किसी मंदिर, संत या हिन्दू हित की बात करने को ही साम्प्रदायिक मानते थे, यदि कोई राजनेता भगवा वस्त्र धारण करता या माथे पर तिलक, चन्दन या टीका धारण करते हुए दिखता था तो स्पष्ट तौर पर वह सैक्यूलर नहीं माना जाता था. आज ये सब चाहे दिखावे को ही सही, क्यों बदले-बदले से नजर आ रहे हैं. ऐसी मानसिकता के लोग भी अब न सिर्फ बड़े बड़े टीके व भगवा वस्त्र धारण करने लगे हैं बल्कि, अपने जनेऊ का भी प्रदर्शन कर मंदिरों में फोटो खिंचवाने व उसे अखबारों/टीवी चैनलों में चलवाने लगे हैं. हिन्दू धार्मिक यात्राओं के स्वागतार्थ बड़े-बड़े होर्डिंग अब सैक्यूलर नेता भी अपने फोटो के साथ लगाने लगे हैं.  आखिर कहाँ गईं वे तस्वीरें जो हम अपने बचपन से अखबारों के मुख पृष्ठ में देखते आ रहे थे कि नेताजी चाहे हिन्दू हों या मुसलमान, सबके सिर पर जालीदार गोल टोपी तथा कंधे पर हरा गमछा है…

हालांकि, इन वक्तव्यों या दिखावे की राजनीति से अयोध्या में जन्मस्थली पर भव्य मंदिर निर्माण आसान हो जाएगा, ऐसा नहीं है. हाँ इतना है कि राजनेता अब यह बात स्पष्ट तौर पर कहने लगे हैं कि मंदिर का रास्ता न्यायालय या संसद से ही निकलेगा और इसे वर्तमान सत्ताधारी राजनैतिक दल को ही निकालना चाहिए उसे संसद में प्रस्ताव लाकर मंदिर का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए. किन्तु उन्हीं राजनेताओं से जब एसे संसदीय प्रस्ताव के समर्थन के बारे में पूछा जाता है तो वे दाएं बाएँ देखने लग जाते हैं. गत कुछ महीनों से तो राम मंदिर के मामले पर होने वाली टीवी की बहसों में प्रमुख विपक्षी दलों ने अपने प्रवक्ताओं को भी भेजने से किनारा कर लिया है. क्योंकि उनकी दुविधा यह है कि जो दशकों से, स्पष्ट तौर पर, राम-मंदिर को साम्प्रदायिक मुद्दा कह कर, विरोध करते आए हैं, अब किस मुंह से उसका समर्थन करें. और, यदि उसका विरोध करते हैं तो, अपनी सुषुप्तावस्था से उठ खडे हुए हिन्दू समाज को अब क्या मुंह दिखाएंगे? दूसरा, अब उनकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का क्या होगा?

गत 490 वर्षों के अनथक संघर्षों में 3.5 लाख रामभक्तों के बलिदान तथा सत्तर से अधिक वर्षों की सतत कानूनी लड़ाई के बाद अब यह दिखने लगा है कि इस मामले का समाधान भी अब सन्निकट ही है. आगामी दो माह इस मामले में मील के पत्थर साबित हो सकते हैं. अभी तो सभी की निगाहें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर टिकी हैं जो इसके त्वरित गति से समाधान करने के पक्ष में हैं. किन्तु, जैसा कि गत 9 महीनों से देखने को मिल रहा है, उच्चतम न्यायालय के कार्य में, कांग्रेस व अन्य सैक्यूलरिस्ट रामद्रोहियों की ‘शाउटिंग ब्रिगेड’, एक के बाद एक, रोड़ा अटकाकर मामले को टालने में जी-जान से लगी है, दूसरे विकल्प पर भी विचार करना ही होगा. वैसे उसकी राह के कंकड़ भी सडक किनारे लगने लगे हैं. अब वह दिन दूर नहीं कि या तो सर्वोच्च अदालत या फिर सभी सांसदों की सामूहिक शक्ति के द्वारा आपसी मतभेद व राजनैतिक स्वार्थ भुलाकर वर्तमान संसद, टाट के टेन्ट से श्री रामलला को एक भव्य मंदिर में पुन: प्रतिष्ठित कर रामराज्य का मार्ग प्रशस्त करेगी.

वास्तव में यह मामला हिन्दू-मुसलमान के बीच का न होकर राष्ट्रीयता व राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़ा है. बाबर जैसे विदेशी लुटेरे, पापी व अत्याचारी या उसके द्वारा बनाएबाबरी ढाँचे से क्या किसी भारतीय स्वाभिमानी समुदाय को जोड़ा जा सकता है? भारत का संविधान, जिसके प्रथम पृष्ठ पर भगवान श्रीराम का दरबार छपा हो, उसकी जन्मभूमि पर पहले से विद्यमान मंदिर की सिर्फ भव्यता का विरोध, क्या देश के संविधान व उसकी पुरातन संस्कृति का विरोध नहीं? गत कुछ वर्षों में अनेक रामद्रोहियों को उनके द्वारा किए गए रामविरोध की सजा भी स्वत: मिल चुकी है. क्या अब भी कोई उसका कोप-भाजन बनाना चाहेगा? चाहे छुप-छुप कर ही सही, अपनी जली हुई लंका को छोड़, रामद्रोही भी अब अयोध्या की ओर लौटते हुए नजर आ रहे हैं…