झुग्गियों में आग….

संजय स्वामी
सर्वप्रथम मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि इस लेख को लिखने का उद्देश्य किसी की मजबूरियों को कम तर आंकना या गरीबी का मजाक उड़ाना नहीं है अपितु यथार्थ को कुछ सीमा तक प्रत्यक्ष करना है |

ये बाते अस्सी के दशक की हैं प्रतिवर्ष मई जून के महीने में लोहे के पुल व पंटून पुल के पास गांधीनगर क्षेत्र की जमुना नदी की भूमि में हजारों झुग्गियां थी उनमें अक्सर आग लग जाती थी हम भी साइकिल दौड़ा दोस्तों संग बाल कोतुहलवश आग के बाद क्या हुआ देखने जाते थे स्कूल के विद्यार्थी थे समझ तो कुछ नहीं आता था बाद में समाचार पत्रों में पढ़ते थे सरकार के राहत शिविरों का वर्णन होता था फिर बरसात के दिनों में पुन: बाढ़ का पानी नदी क्षेत्र में फैलने के कारण से दिल्ली नगर निगम के बाढ़ नियंत्रण विभाग द्वारा यमुना के पुस्ते पर टेंट लगा दिए जाते थे जिनमें फिर से झुग्गी वाले अस्थाई रूप से दो-तीन महीने निवास करते थे |

दिल्ली में झुग्गियों का सिलसिला कब शुरू हुआ यह तो स्पष्ट ध्यान नहीं आता सन 1947 में देश के विभाजन के साथ शरणार्थियों के लिए राहत शिविर अस्थाई रूप से किंग्सवे कैंप,हडसन लेन, ऑटरम लेन मे लगाए गए थे बाद में सभी को धीरे धीरे स्थाई रूप से आवास की व्यवस्था की गई परंतु 1970 में पूर्वी पाकिस्तान वर्तमान में बांग्लादेश में हुए गृह युद्ध के कारण लाखों बांग्लादेशी भारतीय सीमा में अवैध रूप से घुसपैठ कर भारत आ गए | भारत की शौर्य पूर्ण मदद के कारण बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया भारत सरकार ने बांग्लादेश की न केवल सैन्य सहायता की अपितु भरपूर आर्थिक मदद भी की परंतु भारत सरकार के अनेक बार आग्रह करने के बाद भी बांग्लादेश की सरकार ने अपने शरणार्थियों को संपूर्ण रूप से वापस नहीं लिया अपितु यह समस्या एक नए रूप में सामने आई बांग्लादेश से लगातार भारत में घुसपैठ जारी है अवैध रूप से लाखों बांग्लादेशी भारत में अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं दिल्ली में ऐसे सभी घुसपैठिए सर्वप्रथम यमुना नदी के डूब क्षेत्र में अवैध रूप से डाली गई झुग्गियों में आकर डेरा डालते हैं ।

झुग्गियों में रहना बहुत आसान है वहां कोई जाँच-पड़ताल (पुलिस इंक्वायरी) नहीं होती आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि इन झुग्गियों का किराया भी सामान्य अनियमित कालोनियों के कमरे के किराए के बराबर होता है अर्थात झुग्गी का किराया भी ₹2000 लगभग होता है | झुग्गियां डालना एक व्यवसाय है अनेक बार झुग्गी वालों को सरकार के द्वारा प्लाट दिए गए परंतु झुग्गियां डालना बंद नहीं हुआ सरकार की घोषणाएं ही झुग्गी बस्तियों के अस्तित्व का कारण हैं “जहां झुग्गी वही मकान” जैसे नारे नित नई झुग्गियों की फसल को खाद-पानी देने का काम करते हैं | मैं बात कर रहा था घुसपैठियों की क्योंकि यह अवैध रूप से घुसपैठ करके आते हैं सीमा पर भ्रष्टाचार या चोरी से आंख बचाकर भारत की सीमा में प्रवेश करते हैं तथा एजेंटों के माध्यम से दिल्ली जैसे महानगरों तक आसानी से पहुंच जाते हैं बांग्लादेश की सीमा से लेकर दिल्ली जैसे महानगरों की सीमा तक हर प्रक्रिया पर एजेंट मौजूद रहते हैं वे इनके रहने खाने आदि की व्यवस्था भी करते हैं धीरे-धीरे इनको स्थाई निवासी बनाने का इंतजाम करते हैं यह एक प्रकार का सुनियोजित व्यवसाय है |

झुग्गियों में आग लगना या लगाना इसी प्रक्रिया का भाग है | आप लोगों ने कभी ध्यान दिया हो सैकड़ों झुग्गियों जलती है परंतु माल का नुकसान होता है जान का शायद ही | अब झुग्गियों में माल होता ही क्या है ? जेठ की भरी दोपहरी या आधी रात में आग लगती है प्लास्टिक के त्रिपाल से बनी झुग्गियों को जलने में कितनी देर लगती है पुलिस, अग्निशमन विभाग के आने तक काले कचरे के अलावा कुछ नहीं होता | झुग्गियों में कबाड़ बीनने का काम प्रमुख व्यवसाय हैं अगले दिन सुबह-सुबह समाचार पत्र, टीवी चैनल, मीडिया वाले आकर अलग अलग एंगल से फोटो खींचते हैं अखबारों में छपते हैं पूरे दिन टीवी के न्यूज़ चैनल दिखाते हैं सरकार घबरा कर तुरंत राहत की घोषणा करती है तथा कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों को बैठाकर राहत शिविर लगा देती है जहां इलाके के छुट भईये नेता, झुग्गियों के ठेकेदार, एमएलए, काउंसलर पहुंच जाते हैं दो-चार दिन में सब चीजें शांत हो जाती हैं और झुग्गी के साथ-साथ सभी कागजात अर्थात आधार कार्ड, राशन कार्ड, चुनाव पहचान पत्र आदि सभी दस्तावेज जल जाने की बात होती है फिर शुरू होता है असली गोरखधंधा इस फन के माहिर ठेकेदार लोग बिहार, बंगाल के गांव के प्रधानों की मोहर लगा लगा के कागजी खानापूर्ति की औपचारिकताएं पूरी करवा सबको दिल्ली का नागरिक बनवा देते हैं कौन इंक्वायरी करने जाएगा सब कुछ यहीं बैठे बैठे हो जाता है सरकार की आँखों पर चुनाव और वोट का चश्मा चढ़ा रहता है मालूम होते हुए भी सरकारी अधिकारी न जाने किस मजबूरी में बिना इंक्वायरी करे सभी प्रमाण सत्यापित कर नए बना देते हैं | 10-20 वैध तथा 100- 200 फर्जी |

आज तक बांग्लादेश या नेपाल की सरकारों ने ही भारत सरकार के अंतहीन सहयोग का एहसान नहीं माना तो घुसपैठिए कहां याद रखने वाले हैं ? सरकार जितनी मर्जी दरियादिली दिखाएं झुग्गी के बदले प्लॉट दे, मकान दे, दुकान दे, स्कूल खोलें, मुफ्त राशन दे, बिजली दे, पानी दे, परंतु अगली पीढ़ी की तो बात क्या है यही पीढ़ी सभी एहसानों को भूल जाती है और सरकार के साथ-साथ दिल्ली के सामान्य नागरिकों के लिए कभी न समाप्त होने वाला सिरदर्द बन जाती है। ये अवैध निवासी दिल्ली की सुंदरता में तो चार चांद लगाते ही हैं साथ ही दिल्ली पुलिस के आपराधिक रिकॉर्ड के आंकड़े भी बढ़ाते हैं।

करोना महामारी के संकट में दिल्ली से भी लाखों मजदूरों ने पलायन किया है परंतु दिल्ली से वही मजदूर गए हैं जिनके गांव हैं जिनके वहां परिवार हैं जिनके सगे-सम्बन्धी भारत के गांवों में सदियों से रहते हैं परन्तु जो इस देश के हैं ही नहीं, वह कहां जाएंगे ? अतः इन गए हुए बहुत सारे मजदूरों की झुग्गियों पर घुसपैठियों का कब्जा धीरे-धीरे हो जाएगा। कुछ एनजीओ हर समय इनकी मदद के लिए तैयार रहते हैं इनके राशन कार्ड निवास प्रमाण पत्र सब बनवा दिए जाएंगे कुछ झुग्गियों में आग लगवा कर और जो बच जाएंगे जुलाई-अगस्त में आने वाली बाढ़ में उनके भी कागज बह जाएंगे तो फिर नवंबर दिसंबर में राहत शिविरों में उनको भी सभी सुविधाएं पुख्ता करने का इंतजाम ये एनजीओ, ठेकेदार और राजपुरुष करेंगे | इसलिए हर वर्ष की तरह इस वर्ष झुग्गियों में आग लगे तो चौंके नहीं। आखिर रोहिंग्याओं के लिए भी तो जमीन तैयार करवानी है न।