अंग्रेजों की उपनिवेशिक दासता से मुक्ति ही सच्ची आजादी

(विवेक मित्तल) भारत ने अंग्रेजों की दासता से 15 अगस्त 1947 में मुक्ति प्राप्त की। आज हम आजादी का जश्न मनाने को पुनः तैयार हैं। 71 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं भारत  को आजाद हुए। परन्तु स्वराज प्राप्ति के उद्देश्य अभी भी अपूरित हैं। आजादी के बाद शासन करने वाले दलों ने जो लक्ष्य निर्धारित किये थे वे दिशाहीन होकर भटक रहें हैं जिससे आम भारतीय के मन में अनेकानेक अनुत्तरित प्रश्न गूँज रहे हैं। आजादी गरीबी से, आजादी युवाओं को बेरोजगारी से, आजादी आतंकवाद से, आजादी भुखमरी से, आजादी दोहरी नागरिकता की नीति से, भेदभाव से, आजादी अमीरी और गरीबी के बीच की बढ़ती खाई से, आजादी रिलिजन और मजहब के नाम पर भेदभाव से आखिर कब मिलेगी? क्या सही मायनों में हमने आजादी प्राप्त कर ली है? इन सभी बिन्दुओं पर पुनः चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है।
आजादी के वक्त ब्रिटिश इण्डिया से इण्डिया के नुमाइन्दों को सत्ता का हस्तानान्तरण हुआ। आजादी के बाद गुजरते वक्त के साथ शासक पार्टियाँ सत्ता मद में इतनी अधिक मदहोश हो गयीं कि अनेक अवसरों पर ऐसा प्रतीत होने लगा कि क्या हम आजाद भारत के नागरिक हैं? स्वराज प्राप्ति के बाद भारत के नागरिकों के लिए एक लिखित नियम तन्त्र बनाया गया जिसे भारत का संविधान नाम दिया गया। इस संविधान के बारे में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि “यह तो जल्दबाजी में रचित शासन की नियमावली है जिसमें समय-समय पर संशोधन होते रहेंगे।“ यह कथन संविधान की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
संविधान के अनुसार भारत एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र है। जिसमें सर्वाेच्च ऑथोरिटी नागरिक हैं तथा देश में शासन चलाने वालों को अस्थाई कार्यपालिका के रूप में परिभाषित किया गया है, जो केवल मात्र शासन और जनता के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। लेकिन बीतते समय के साथ ये शासन चलाने वाले अस्थाई लोग सर्वाेच्च ऑथोरिटी बन बैठे हैं, ये शासक संविधान की मूल भावना के विरुद्ध कार्य करने में भी लेशमात्र हिचकते नहीं हैं। क्योंकि हमारा संविधान इतना लचीला है कि जरा सी तकनीकी प्रक्रिया अपना कर इसमें छेड़छाड़ की जा सकती है और इसकी मूल भावना से खेला जा सकता है। ऐसे में आजादी के मायने कम हो जाते हैं। क्या भारत का नागरिक सिर्फ-और-सिर्फ वोट देने के लिये बना है? या फिर जो विगत वर्षों में भौतिक प्रगति हुई है उसी का नाम आजादी है। आरक्षण के नाम पर चन्द लोगों द्वारा सम्पूर्ण बहुसंख्यक समुदाय को लगातार निशाना बनाना ही आजादी है क्या? ‘बहुसंख्यकों भारत छोड़ो’ कौन रच रहा है ऐसे नारों को? देश के विकास की यह कौनसी दिशा और दशा तय की जा रही है, स्वतन्त्र भारत में? या ये षड्यंत्र है सत्तालोलुप खादीधारियों का। ऐसे सपने तो नहीं बुने होंगे, रचे होंगे, दिलों में बसाये होंगे आजादी के दिवानों ने, तो फिर क्यों सर्वाेच्च अधिकार प्राप्त भारत के जन को गुमराह किया जा रहा है?
जिस दिन हमारे शासन कर्ता अंग्रेजीयत और उनकी भारतवर्ष पर थोपी गई उपनिवेशिक दासता की मानसिकता से मुक्ति हो जायेंगे, उस दिन होगी पूर्ण स्तन्त्रता और वो दिन होगा उत्सव आजादी का। श्रेष्ठ भारत निर्माण के लिए आवश्यक है कि सेक्युलरिज्म, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों के अर्थ को  विकृत करके आमजन में ना उछाला जाये। इन शब्दों की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिये ताकि वोट बैंक के इस्तेमाल के रूप में रोक लग सके, आध्यात्मिक अन्याय को भी रोका जा सके।
प्रसिद्ध दार्शनिक  समाज वैज्ञानिक एवं इतिहासवेत्ता प्रोफ़ेसर रामेश्वर मिश्र पंकज के अनुसार, “हमारे संविधान के बहुत सारे विशेषताएं हैं वह बहुत उदार लचीला है यही उसका गुण है और अगर राजकर्ता की नियत ठीक ना हो या उसके मन में खराब भावना हो, राष्ट्र सेवा का भाव न हो तो यही गुण, दोष बन जाता है। अतः जो लोक सेवक हैं, जनता के सेवक हैं, राजपुरुष हैं और अधिकार संपन्न  हैं इनको अपने अधिकारों के दुरुपयोग करने की आजादी पर लगाम लगानी चाहिए। अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नियमों को स्वतंत्रता के बाद भी लागू रखना ठीक नहीं है। शासन केवल संविधान से नहीं चलता प्रशासनिक मान्यताओं, परम्पराओं, व्यवहार आदि का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः ब्रिटिश शासन जो कि मात्र 90 वर्ष रहा वह भी आधे भारत में, उससे प्रेरणा पाने का क्या औचित्य है। ऐसी दासता से मुक्ति मिलनी चाहिए, ऐसी शासन प्रक्रिया से मुक्ति मिलनी चाहिए। अगर प्रेरणा लेनी ही है तो भारत के उन शासकों के शासन प्रणाली की लेनी चाहिए जिन्होंने कई शताब्दियों तक धर्मसम्मत शासन किया।“
उत्सव आजादी का मनाने के लिए प्रत्येक भारतवासी के मन में पूर्ण जोश, उत्साह, उमंग होनी चाहिये। क्या हम सभी मायनों में मना पाते हैं आजादी का पर्व या मात्र सरकारी आयोजन तक सीमित होकर रह गया है यह अति विशिष्ट पर्व। अगर महज खानापूर्ति का दिन रह गया है तो अत्यन्त गम्भीर सवाल है। ऐसा क्यों हो रहा है? जिस दौर से वर्तमान भारत गुजर रहा है उस समय में इस पर्व की सार्थकता, उपयोगिता अत्यन्त बढ़ जाती है। शान्ति, सौहार्द, भाईचारे, एकता के सन्देश को जन-जन तक पहुँचाने का सशक्त जरिया बन सकता है आजादी का पर्व। तो आईये मिल कर आजादी का उत्सव मनाये, इसे अपने दिलों में बसायें, दिल से….. यकिन माने आजादी का जश्न सार्थक हो जायेगा।
जय हिन्द्! जय भारत!!