सत्ता प्राप्ति हेतु महागठबन्धन की मजबूरी

सत्ता प्राप्ति हेतु महागठबन्धन की मजबूरी by vivek mittal

 

सत्ता प्राप्ति हेतु महागठबन्धन की मजबूरी
लोकसभा चुनावों की आहट मात्र से सत्ता प्राप्ति के लिये राष्ट्रीय तथा प्रान्तीय स्तर के भिन्न-भिन्न विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों के मध्य गठबन्धन से आगे ‘महागठबन्धन का शासन’ को लेकर सरगर्मियाँ चरम पर हैं। बहुुमत न पाने का डर जहाँ एक ओर राष्ट्रीय दलों को सता रहा है वहीं दूसरी ओर प्रान्तीय दल भी अपना अस्तित्व बढ़ाने व बचाने के लिए इन राष्ट्रीय दलों से सशर्त सौदेबाजी कर शासन के अन्दर बने रहना चाहते हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर तथा प्रान्तीय स्तर के दलों में यह कैसी मजबूरी है कि बेमेल सौदे किये जा रहे हैं। देश ने पूर्व में भी गठबन्धन का दौर देखा है, अब महागठबन्धन का दौर कायम करने की तैयारी कर रहे हैं राजनीतिक दल। परन्तु एक सवाल हम सभी के मन में उठता है कि जब एक दल के अनेक दल बने, दल-दल हो गये, जिनके विचारों में मतभेद बढ़ा, विचारधाराओं का प्रवाह अलग-अलग दिशा में प्रवाहित होने लगा तो ऐसे में सत्ता-शक्ति-पद पाने की तीव्र तड़प में क्यों एक माला में अपने आप को पिरोने की झूठी कोशिशें कर रहे हैं? आइडियोलाॅजी के नाम पर सत्ता पाने के लिये किये जा रहे पार्टियों के ऐसे महागठबन्धन कितने विधि सम्मत है? यह पहले भी हम सब देख चुके हैं।
राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये अथवा सत्तारुढ़ दल को सत्ता विहीन करने के लिए विचारधारा को ताक पर रखकर गठबन्धन से एक कदम आगे बढ़ कर ‘महागठबन्धन का शासन’ की ओर अग्रसर होने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। ऐसे ‘महागठबन्धन का शासन’ भारतीय लोगों के साथ छलावा है। विचारधाराओं में असहमति ही तो नये दलों के जन्म का कारण बनती है लेकिन सत्ता प्राप्ति के लिए पुनः उनसेे बन्धन करना स्वीकार्य नहीं है। आदर्श और सुदृढ़ लोकतन्त्र के लिए शास्त्रोक्त तथा प्रामाणिक (ईमानदार) राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है। लेकिन भारतीय लोकतन्त्र का यह दुर्भाग्य ही है कि ऐसे राजनीतिक दलों का नितान्त अभाव है। एच.एल. मेंकेन नामक दार्शनिक के अनुसार, ”लोकतन्त्र बुद्धिहीन लोगों की भेड़चाल है।“ वर्तमान में भारतीय राजनीति में इनका कथन उचित प्रतीत होता है। क्योंकि परम्पराओं, मान्यताओं और विचारधाराओं में निष्ठा रखने वाले राजनेताओं के जीवन का प्रथम और अन्तिम ध्येय केवल-और-केवल ‘लोक-कल्याण’ के कार्य करना होता है। लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से सत्ताधीन राजनीतिक दलों के अधिकांश नेताओं द्वारा ‘लोक-कल्याण’, ‘राष्ट्ररक्षा’ तथा ‘आदर्श शासन प्रणाली’ के अनुरूप राष्ट्रहित में, जनहित में कार्य करने का ध्येय निर्धारित किया हो ऐसा प्रतीत नहीं हुआ।
बन्धन, गठबन्धन और महागठबन्धन के दौर में दलों का सैद्धान्तिक, नैतिक, वैचारिक, चारित्रिक जैसे स्तरों पर तीव्र गति से पतन हुआ है। भारत में इन राजनीतिक दलों की ताकत कितनी भी विराट क्यों न प्रतीत होती हो लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियों के सामने निष्प्रभावी ही दिखाई देती हैं। जनता का विश्वास खो बैठे ये राजनीतिक दल बहुमत प्राप्त न होने के डर से बेमेल महागठबन्धन कर रहे हैं, प्रान्तीय राजनीतिक दलों का समर्थन कर रहे हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए महागठबन्धन में सम्मिलित राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली, सिद्धान्त, उद्देश्य तथा महत्वकांक्षाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं फिर भी ये राजनीतिक दल ‘महागठबन्धन का शासन’ के विचार को मुर्तरूप देने में जुटे हैं। जनता को ऐसे मौकापरस्त महागठबन्धन से सावधान रहने की जरुरत है। क्योंकि ऐसे महागठबन्धन शासन में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करते हैं। सफल, सुदृढ़, सक्षम लोकतन्त्र में कल्याणकारी लोक-शासन व्यवस्था कायम हो इसके लिए स्वार्थ सिद्धि वाले दलों के गठबन्धन हेतु संविधान में उचित नियम-कायदे वाली नियमावली बनाये जाने की आवश्यकता है ताकि गठबन्धन में शामिल दलों की इच्छा अनुरूप कार्य न होने पर समर्थन वापिस लेने से देश को मध्यावति चुनाव न झेलने पड़ें तथा आदर्श लोक-शासन की स्थापना हो सके और सबका साथ-सबका विकास की भावना सही मायने चरितार्थ हो सके।
जय हिन्दी! जय भारत!
विवेक मित्तल
समाजसेवी, विचारक एवं पत्रकार