यह पहला मौका था जब बॉलीवुड सिनेमा में अपने ही कुनबे के एक किरदार पर फिल्म बनाई गई. इससे पहले बॉलीवुड ने पान सिंह तोमर से लेकर गांधी, भगत सिंह, सुभाष जैसे नायकों पर बायोपिक बनाईं लेकिन बॉलीवुड के किसी चेहरे पर बायोपिक का शायद यह पहला मौका है. हम बात कर रहे हैं सुनील दत्त और नरगिस के बेटे संजय दत्त पर बनी फिल्म संजू की.
संजय दत्त सिनेमा जगत का एक ऐसा चेहरा है जिसे बॉलीवुड में एंट्री का पास और अभिनय विरासत में मिला. मां का दुलारा, पिता के अनुशासन का मारा, पैसे और उम्र के नशे में बहकता और भटककर गलत रास्तों पर चलता एक किरदार. जिसपर कभी आतंकवादियों से मिले होने का आरोप लगा तो कभी ड्रग्स और सेक्स के हाथों खेल रही एक बुरी औलाद होने का धब्बा. जिसके पास से प्रतिबंधित हथियार बरामद हुए, जो नशे के हर तरीके को अपनी नसों में उतारता हुआ ज़िंदगी जीता रहा.
परिवार के बंधन, अनुशासन और सामाजिक प्रतिष्ठा जिसके लिए कभी अहम नहीं रहे. जो अपनी शर्तों पर आगे चलता मां का बिगड़ैल बेटा बना रहा. जिसने आग में जलते मुंबई को देखा और रात की रंगीनियों में चमकते-बहकते महानगर को भी. और दोनों ने उसे प्रभावित किया. दोनों ने उसकी ज़िंदगी के रास्ते बदल दिए.
विवादों और रहस्यों की यही ज़िंदगी सबको आकर्षित करती रही. संजय दत्त को न पसंद करने वाले कम ही हैं. उससे भी कम वे हैं जिनकी संजय दत्त की ज़िंदगी की कहानी में रुचि न हो. पर्दे पर एक के बाद एक मज़बूत किरदार निभाता यह चेहरा लोगों की आंखों में अपनी जगह बना चुका है. यह एक ऐसा किरदार है जिसकी आंखें उसकी पहचान हैं- खलनायक हो या वास्तव, वो लाल डोरे वाली बड़ी बड़ी नशीली आंखें हिंदी सिनेमा के किसी और हीरो के नसीब में नहीं रहीं.
जिज्ञासाओं के इसी समंदर को बाक्स ऑफिस पर समेटने के लिए राजकुमार हिरानी ने संजू लिखी और निर्देशित की. और लोगों के दिल में संजय दत्त के प्रति प्यार, जिज्ञासा और रुचि ने चार दिन में ही केवल भारत में 145 करोड़ का कारोबार करके इस फिल्म को सफलता के नए कीर्तिमानों से नवाज़ दिया.
लेकिन अफसोस यह फिल्म संजय दत्त की बायोपिक है, ऐसा कह पाना कठिन है. एक-दो पहलुओं को छोड़ दें तो अधिकतर बातें जो इस फिल्म में दिखाई गईं, लोग उनके बारे में अवगत हैं. लोग जिस संजू को जानते हैं, यह फिल्म उन लोगों के बीच संजू की छवि सुधार का एक सिनेमाई पीआर जैसा काम है.
कितने ही सवाल इस फिल्म में अनुत्तरित रह गए. सुनील दत्त की राजनीति से लेकर नरगिस का वो छोटा बिगड़ैल बेटा इस फिल्म में कहीं नहीं मिले. न ही बेटे को लेकर मां-बाप के बीच किसी तरह का विरोधाभाष इस सिनेमा में देखने को मिला.
संजय दत्त की जवानी, पढ़ाई, शादी, बच्चे, इस सबपर यह फिल्म खामोश है. 350 महिलाओं के साथ शारीरिक संबंधों की स्वीकारोक्ति से ज़्यादा इस फिल्म में संजय दत्त की ज़िंदगी में महिलाओं का महत्व दिखाई नहीं देता. मां की बीमारी और मौत का असर भी बहुत गड्डमड्ड है. संजय दरअसल उस पूरे दौर से कैसे गुज़रे, निर्देशक इसे लोगों को ईमानदारी से नहीं दिखा सका.
और तो और, जिस बॉलीवुड की वजह से संजू जाने जाते हैं, वहां उनकी दोस्ती और दुश्मनी, सहारा देने वाले और ठोकरें मारने वालों को भी निर्देशक सामने ला पाने में असफल है. एक नशा कराने वाले दोस्त और एक नशा छुड़ाने वाले दोस्त के अलावा बाकी वो सारे चरित्र या तो केवल क्षणिक हैं और या फिर नदारद, जिनके बिना संजू की ज़िंदगी की कहानी पूरी नहीं होती.
फिल्म पूरे समय एक कसावट के अभाव में चलती हुई नज़र आती है जिसमें हाई प्वाइंट्स न के बराबर हैं. ऐसा लगता है जैसे संजय दत्त अपने पक्ष में कुछ घटनाओं का सरसरे तौर पर ज़िक्र करते हुए लोगों को अपनी सफाई पेश करने में और खुद को मासूम, दया का पात्र और सहानुभूति मांगने वाला इंसान साबित करने में लगे हैं.
परेश रावल सुनील दत्त जैसे गोरे नहीं दिखते, मनीषा कोइराला नरगिस की आंखों और ज़िंदगी का सूनापन नहीं ओढ़ पाईं. नशे में डूबा संजू बालसुलभ और नाटकीय ज़्यादा है, नशे में डूबा हुआ कम. रणबीर कपूर पूरी फिल्म में संजय दत्त को निभा पाने की जद्दोजहद करते नज़र आते हैं. डायरेक्टर उन्हें बाल और कपड़े पहनाकर संजू बनाना चाहता है लेकिन दर्शक संजय दत्त की वो आंखें आखिर तक नहीं देख पाते जिनकी वजह से वे अपने इस सितारे को लाखों की भीड़ में और तमाम चमकते चेहरों के बीच अलग पहचान लेते हैं.
बॉलीवुड के इस चरित्र पर बायोपिक बनने की खबर के बाद ऐसा लगा था कि शायद कुछ गहरा और मज़बूत काम देखने को मिलेगा, शायद वो संजू लोगों से रूबरू होगा जिसे वो जानना चाहते हैं. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. पर्दे पर बदलते दृश्यों के बीच दर्शक अपने संजय दत्त को खोजते रह जाते हैं और फिल्म खत्म हो जाती है.
और इस फिल्म के खत्म होने के साथ खत्म हो जाती है एक सार्थक और ज़रूरी बायोपिक दर्शकों को दे पाने की गुंजाइश. राजकुमार हिरानी पैसा कमाऊ सिनेमा बनाकर तो आ गए लेकिन दर्शक अभी भी उस संजू को खोज रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने टिकट खरीदा था. बॉलीवुड के चरित्रों पर बायोपिक की पहली कोशिश एक असफल फिल्म और एक सफल पीआर भर है.